आधुनिकता के दौर में चीनी गट्टा उद्योग मार्केटिंग के अभाव में सिमटता जा रहा है। कभी खिचड़ी के पर्व पर महीने भर में ही 50-60 क्विंटल तक गट्टा व्यापार करने वाला खानपुर आज 15-20 क्विंटल बड़ी मुश्किल से बेच पा रहा है। मकर संक्रांति पर सफेद गट्टे में काली तिल मिला मीठा व्यंजन अब त्योहार का औपचारिक मिष्ठान भर रह गया है। मकर संक्रांति के अवसर पर चीनी गट्टा बनाने का कार्य इस समय तेजी पर है।
ग्रामीण अंचलों में खिचड़ी का त्योहार लाई, गुड़, चूड़ा, तिलकुट व गजक के साथ गट्टे बिना अधूरा रहता है। इसलिए लोग इन सभी व्यंजनों के साथ चीनी से बना सफेद गट्टा जरूर खाते है। मिठाइयों के दौर में अपनी लोकप्रियता खो रहा गट्टा पहले लोग बहन-बेटियों को खिचड़ी उपहार देने के साथ साल भर अपने घरों में सुरक्षित भी रखते थे और मेहमानों के विशेष सत्कार के तौर पर उन्हें खिलाते थे। खानपुर में बड़े पैमाने पर बनने वाला गट्टा अब सिर्फ चंद परिवारों तक सिमट कर रह गया है। विशाल मोदनवाल बताते हैं कि कभी यहां दो दर्जन परिवार गट्टा बनाते थे जिसे जौनपुर, वाराणसी व आजमगढ़ सहित जिले के अन्य बाजारों में सप्लाई किया जाता था।
दिनेश मोदनवाल बताते हैं कि भटठी पर चीनी की चाशनी तैयार कर इसे फेंटा जाता है, इसके बाद तिल और अन्य चीजें मिलाकर इसे दीवार या खंभे के खूंटी पर टांगकर खींचा जाता है। दो लोग मिलकर इसे खूब खींच-खींचकर फेंटते हैं। गट्टा में सफेदी और मरोड़ लाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर गट्टे का रोल बनाकर इसे छोटे छोटे टुकड़ों में काटा जाता है। अखिलेश का कहना है कि इस पुश्तैनी काम को करने में पूरे परिवार का मेहनत और त्योहारी मांग के चलते 40 रुपये किलो चीनी खरीद कर 50-55 रुपये किलो गट्टा बेचना नुकसानदायक है। ऐसे में मजदूरी तक बामुश्किल निकल पाती है, लेकिन परंपरा निर्वहन व पुश्तैनी कारोबार को बरकारार रखने के लिए प्रयास कर रहे हैं।