आज इस वर्ष के लिए सावन का अंतिम सोमवार है। शिव उपासना का चरम भाव, जब आदिदेव की अर्चना पुष्पों से ही नहीं, तालवाद्यों से प्रस्फुटित होते दिव्य संगीत से भी की जाएगी। शिवनाद के रूप में यह भारत के कई शीर्ष संगीत घरानों की शाश्वत परंपरा है। वास्तव में यह कृतज्ञ भक्तों की संगीतांजलि है उन नटराज को, जो स्वयं ही संगीत के सर्जक हैं, संरक्षक हैं।
हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भगवान शिव के डमरू का महत्व विस्तार से बताया गया है। शिवमहापुराण के अनुसार, भगवान शिव से पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। तब न तो कोई नृत्य करना जानता था, न ही वाद्ययंत्रों को बजाना और गाना जानता था। ऐसे में सृष्टि के संतुलन के लिए उन्होंने डमरू धारण किया।
मान्यता है कि डमरू की ध्वनि से ही संगीत की धुन और ताल का जन्म हुआ। भगवान भोलेनाथ का डमरू सृष्टि में संगीत, ध्वनि और व्याकरण पर उनके नियंत्रण का द्योतक है। शिव जब डमरू सहित तांडव नृत्य करते हैं तो यह प्रकृति में आनंद भर देता है। तब शिव क्रोध में नहीं होते अपितु संसार से दुख को नष्ट कर नई शुरुआत करने का संदेश देते हैं। शिव का डमरू नाद-साधना का प्रतीक माना जाता है। नाद अर्थात वह ध्वनि जिसे ‘ऊं’ कहते हैं। इसके उच्चारण का महत्व भी योग व ध्यान में वर्णित है। भगवान शिव के डमरू से निकले अचूक और चमत्कारी 14 सूत्रों को एक श्वास में बोलने का अभ्यास किया जाता है।
हिंदू , तिब्बती व बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण वाद्य माना जाता है भगवान शिव का डमरू। इसे लय में सुनते रहने से मस्तिष्क को शांति मिलती है और हर तरह का तनाव हट जाता है। इसकी ध्वनि से आस-पास की नकारात्मक ऊर्जा और बुरी शक्तियां भी दूर हो जाती हैं। कर्नाटक के कई शिव मंदिरों में पूजन के दौरान डमरू वादन किया जाता है। इसे लोकवाद्य की श्रेणी में रखा गया है।