महामारी की बढ़ती भयावहता, खुशहाल जिंदगी के सपने को हर रोज चकनाचूर कर रही थी। खाली हो चुकी जेब और भूख से ऐंठ रहा पेट, बेरोजगारी का अहसास कराने लगे थे। कौन अपना है-कौन पराया, मुश्किल वक्त इसकी पहचान करा चुका था। ऐसे हालात में उन हजारों लोगों के पास वापस लौटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था, जो रोजी-रोटी की तलाश में घर से दूर लॉकडाउन में फंस गए थे। हजारों मील के दुरूह सफर में हर पग पर अरमानों को अपने ही कदमों से रौंदकर घर पहुंचे लोगों की दास्तां सुनने वालों को झकझोर दे रही है। अपनी सरजमीं पर कदम पडऩे के सुखद अहसास का बखान करने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं, लेकिन जिंदगी है कि रुकने देती है न ही थकने। भविष्य की चिंता और परिवार की जिम्मेदारियां अब उन्हें नए तरीके से सोचने पर विवश कर रही हैं।
वक्त ने अपने-पराये की पहचान कराई, नई जिंदगी पर होने लगा मंथन
क्वारंटाइन सेंटर से लेकर गांव की चौपालों तक में सुनी और सुनाई जा रही इनकी कहानियां दूसरों के लिए सबक बन रही हैं। सहजनवां के खीरीडार निवासी दीपक साहनी घर की गरीबी दूर करने महाराष्ट्र के थाणे गए थे। सब्जी बेचकर परिवार का गुजारा कर रहे थे कि अचानक लॉकडाउन में सब बंद हो गया। मकान मालिक ने दो महीने का तीन हजार रुपये किराया न लेकर इंसानियत दिखाई। तीन हजार रुपये किराया देकर ट्रक से घर के लिए चला तो उसने भी बस्ती लाकर छोड़ दिया। दीपक कहते हैं कि अब कहीं नहीं जाएंगे, गांव पर ही अब कोई रोजगार तलाशेंगे।