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जिले में जागरूकता के अभाव में बढ़ रहे हैं थैलेसीमिया के मरीज



आनुवांशिक बीमारी थैलेसीमिया के मरीजों की संख्या जिले में तेजी से बढ़ रही है। सदर अस्पताल में स्थापित ब्लड बैंक में पिछले साल अप्रैल से फरवरी तक में कुल 37 मरीजों को प्रति यूनिट ब्लड दिया गया। ये सभी थैलेसीमिया के मरीज हैं। स्वास्थ्य विभाग के लिए चिंता की बात है कि अगर इसी तरह से थैलेसीमिया के मरीज बढ़ते गए तो ब्लड बैंक को बड़ी संख्या में रक्त की आवश्यकता होगी। जबकि लॉकडाउन के दौरान स्थिति यह है कि मात्र 20 यूनिट ब्लड बैंक में मौजूद है।
स्थिति यह है कि थैलेसीमिया के मरीज आते ही ब्लड बैंक क कर्मी के हाथ-पांव फूल जाते हैं। ब्लड बैंक के स्टोर कीपर राजकुमार पूरी कहते हैं कि प्रत्येक माह 4 से 5 थैलेसीमिया मरीज को एक यूनिट ब्लड देना पड़ता है। रक्तदोष जनित इस बीमारी की बड़ी समस्या प्रत्येक माह एक यूनिट ब्लड चढ़ाना होता है। वहीं सरकार की गाइडलाइन के अनुसार ऐसे मरीजों से बदले में ब्लड नहीं लेना है। दूसरी ओर जबकि सदर अस्पताल से लेकर नवनिर्मित मेडिकल कॉलेज के एक्सपर्ट डाॅक्टर तो दूर पैथोलॉजी विभाग में थैलेसीमिया केंद्र तक नहीं है। सीबीसी से जांच के ऊपर ऐसे मरीजों को थायरोकेयर जैसे कलेक्शन पर निर्भर रहना पड़ता है। सदर अस्पताल में पदस्थापित अस्पताल अधीक्षक सह शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर डीपी गुप्ता कहते हैं कि पहले पूरे जिले में मुश्किल से 4 से 5 मरीज थैलेसीमिया के होत थे। अब प्रत्येक साल संख्या दोगुना हो रही है। जननायक कर्पूरी ठाकुर मेडिकल कॉलेज में महिला विभाग की एचओडी डॉ. पूनम कुमारी ने कहा कि प्रसव पूर्व जांच ही बचाव का बेहतर उपाय है। इस रोग से बचने का सर्वोत्तम और सबसे सुलभ एवं सस्ता तरीका और कुछ नहीं है। गर्भधारण के बाद काउंसलिंग कराना तथा एंटीनेटल डायग्नोसिस कराना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि इस बीमारी का संपूर्ण निदान बोन मैरो ट्रांसप्लांट से ही संभव है, लेकिन इसे पूरा करने के लिए दो शर्तें हैं। एक सौ प्रतिशत एचएलए मैच डोनर का मिलना है।
इस तरह से थैलेसीमिया के लक्षण को पहचानें
इस बीमारी के शिकार बच्चों में रोग के लक्षण जन्म से 4 या 6 महीने में ही नजर आने लगते हैं। बच्चे की त्वचा और नाखूनों में पीलापन आने लगता है। आंख और जीभ भी पीली पड़ने लगती हैं। उसके ऊपरी जबड़े में दोष आ जाता है। आंतों में विषमताएं आने लगती हैं तथा दांत उगने में काफी कठिनाई होती है। बच्चे की त्वचा पीली पड़ने लगती है। यकृत और प्लीहा की लंबाई बढ़ने लगती है तथा बच्चे का विकास एकदम रुक जाता है। माइनर का शिकार व्यक्ति सामान्य जीवन जीता है और उसे कभी इस बात का आभास तक नहीं होता कि उसके खून में कोई दोष है। शादी के पहले अगर पति-पत्नी के खून की जांच हो जाए तो शायद इस आनुवांशिक रोगग्रस्त बच्चों का जन्म टाला जा सकता है।


जिले में 12-15 मरीज हैं थैलेसीमिया के
जिले में थैलेसीमिया के मरीजों की संख्या 12 से 15 है। हो सकता है कि संख्या और ज्यादा हो। बेहतर होगा कि प्रसव से पूर्व माता-पिता दो ब्लड टेस्ट कराएं। ताकि इस समस्या से बचा जा सके।

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